Tuesday, May 12, 2009

सात फेरे (पहली किस्त)

पढ़ते-पढ़ते उसे ऊंघ सी आने लगी। ज्योत्सना ने हाथ में पकड़े झुंपा लाहिरी के थिरकते शब्दों को अल्पविराम दिया ताकि कुछ देर सुस्ताने के बाद वे दोबारा उसको जादुई दुनिया की सैर करा सकें। किताबों के अलावा कोई मसरूफियत नहीं थी। वो इस फुर्सत से उकताये जा रही थी। कुछ साल पहले यह हाल था कि शोर-शराबे और दूसरों के आने-जाने से वह हद से ज्यादा चिढ़ जाया करती थी। उसे जिंदगी के बेशकीमती लम्हों के जाया होने का बेहद अफसोस हुआ करता था। पहले फुर्सत का एक पल चुराना मुश्किल होता था और अब जब फुर्सत मिली तो ऐसी कि ये दिन उसे इस कदर बोझिल लगने लगे कि उसे मुसलसल खामोशी, तन्हाई और बेकारी वे वहशत सी होती थी। राहत का नामोनिशंा नहीं था और थकान का एहसास था कि बढ़ता ही जा रहा था। 'सच है कि फुर्सत की भी अपनी एक थकान होती है।'

ज्योत्सना ने सच्चाई से खुद का एतराफ किया। 'टी.वी. खोलो' पड़ोसन मीता की गगनभेदी आवाज ने तमाम फ्लैटों के बंद दरवाजों पर दस्तक दी। न्यूज चैनल पर लोकल ट्रेन में हुए बम-विस्फोट की खबर देखकर मीता बुरी तरह हड़बड़ा गयी थी। सभी न्यूज चैनलों पर विस्फोट का खौफनाक मंजर दिखाया जा रहा था। बिल्डिंग की ज्यादातर औरतों की तरह ज्योत्सना भी अपने पति के घर लौटने का इंतजार कर रही थी। रजत ऑफिस से नहीं आये थे। बोरीवाली में उनका ऑफिस था। ऑफिस से लौटने का रूट और नियत समय भी वही था। 'हे भगवान!' ज्योत्सना चिंता में डूब गयी। '...' जवाब ने खामोशी का लिहाफ ओढ़ लिया।

8 बजे शाम

मीरा रोड से माटुंगा के बीच हुए लगातार धमाकों से चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल था। 'लाइन इज बिजी, प्लीज डायल लेटर' रजत के ऑफिस से लगातार नकारात्मक रिस्पांस मिल रहा था। रजत अपना मोबाइल घर पर भूल गये थे। सुबह-सुबह बाप-बेटे में गर्मागर्म कहासुनी जो हो गयी थी। 'आज सुबह से ही मनहूसियत का आभास हो रहा था। मैं चाहती तो रजत को आफिस जाने से रोक सकती थी।' ज्योत्सना को याद आया कि रात में बिल्ली के रोने की आवाज भी सुनी थी।

(दिन भर रजत के वुजूद को झेलना नाकाबिले बर्दाश्त होता है। जब रजत टूर पर जाते है तब मैं ऊपरी तौर पर गुस्सा जाहिर करती हूं पर रजत की गैरमौजूदगी का पूरा लुत्फ उठाती हूं। आज भी मैं सुकून के चन्द लम्हे खोना नहीं चाहती थी)

'मैं ऐसा क्यों महसूस कर रही हूं? क्या हमारे रिश्ते में प्यार नहीं रहा?' ज्योत्सना को अचानक बहुत शिद्दत से तन्हाई का एहसास हुआ जो गहराते शाम के साये के साथ बढ़ रहा था। (प्यार था ही कब.. हां, अगर जिस्मों की नजदीकियों को प्यार का जामा पहनाना चाहो तो और बात है। यहंा भावात्मक लगाव को लेकर भी संशय है और तुम मोहब्बत के नर्म गुलाबी एहसासात के मुगालतों में हो।) 'पति-पत्नी के रिश्तों में प्यार की गुंजाइश ही कहंा होती है? अगर इंसान एक कुत्ता पालता है तो उसके साथ भी रहने की आदत हो जाती है। साथ रहने की आदत एक-दूसरे के लिए सहूलियत-सहजीविता की थ्योरी-भावात्मक लगाव-इसी को लोग प्यार समझ लेते है।' एक दार्शनिक के विचारों ने हौले से ज्योत्सना की सोच को थपथपाया।

उसे लगा वह इंसान न होकर कुत्ता बन गयी थी। उसका पति और बच्चे भी। चारों कुत्ते एक साथ रहते थे। एक-दूसरे पर भौं-भौं करते हुए झपटते रहते थे। घबराकर उसने न्यूज चैनल बदला। म्यूजिक चैनल पर एक गजल ने समंा बांध रखा था-

'तेरे आने की जब खबर महके

तेरी खुशबू से सारा घर महके।'

'और यहां रजत के जाने के बाद खुशबू क्या, उसका समूचा अस्तित्व ही गायब हो जाता है। मैंने कभी रजत की खुशबू का एहसास नहीं किया।' ज्योत्सना ने मुंदी-मुंदी आंखों से वाल-क्लॉक को देखा।

घड़ी की सुइयों पे जिंदगी, दिन-रात, महीने और साल बीते। किताबों में रखे सुर्ख गुलाबों में वह खुशबू आज तलक जिन्दा है।

'क्या मैं अब तक उसका प्यार पूरी तरह पाने के इंतजार में हूं? अधूरा प्यार आज भी पूरा होने की चाह रखता है।' ज्योत्सना ने अंदर ही अंदर खुद को टटोला। उसे अपने इर्द-गिर्द जुनैद की खुशबू का एहसास गहराता हुआ मालूम हुआ।

(उस उम्र में रूहानी, रूमानी और जिस्मानी ख्यालातों की मिली-जुली तबियत होती है। क्या जुनैद हकीकत में तुमसे प्यार करता था?) 'मालूम नहीं.. पर मैं तो करती थी।' (अगर जुनैद को तुमसे इतनी शदीद-तरीन मोहब्बत थी तो.. कायर कहीं का। सुना है जब तक मोहब्बत के फूल को इजहार का पानी न मिले, वो सूखकर खत्म हो जाता है।)

'ठीक है, ठीक है पर क्या रजत मुझसे प्यार करते है?' मन हमेशा सोचता आया था कि रजत को उससे दिली लगाव था। कमर पर लहराते खूबसूरत शहद रंग बालों, दूध जैसी रंगत और हसीन शरबती आंखों के संग बेबाक अंदाज लिये वह हर महफिल की जान बन जाती थी। रजत के बॉस उस पर इस कदर फिदा थे कि हर हफ्ते किसी न किसी बहाने कोई फैमली डिनर या सरप्राइज पार्टी अरैज कर देते जिसमें उनकी मौजूदगी निहायत अहमियताना होती थी। उसे हमेशा महसूस होता था कि रजत को सिर्फ उसकी खूबसूरती में दिलचस्पी है।

'बिल्डिंग में रहने वाली माला नेगी कितनी बदसूरत है? पर उसका पति उससे कितना प्यार करता है? दैट इज रियल लव' रह-रहकर उसे अपनी सुंदरता पर कोफ्त होने लगी। 'काश मैं बदसूरत होती तो कितना अच्छा होता। तब जाकर मुझे सच्चा प्रेम नसीब होता।' वह गहन हीनभावना से अवसादग्रस्त हो उठी।

[सोनाली सिंह]

जीवनधारा, गायत्रीनगर, राठ-210431,

जिला- हमीरपुर (उ.प्र.)




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