वट, यानी बरगद को अक्षय वट भी कहा जाता है, क्योंकि यह पेड़ कभी नष्ट नहीं होता है। एक प्रचलित कथा के अनुसार, सदियों पहले घनघोर बारिश हुई थी, बिजली गिरी, सारे वृक्ष गिर गए, लेकिन वट वृक्ष के एक भी पत्ते को क्षति नहीं पहुंची।
ऐसी मान्यता है कि अक्षय वट की रक्षा तीनों देव करते हैं। इसके मूल में चौमुखी ब्रह्म, मध्य में भगवान विष्णु और अग्रभाग में त्रिलोकी नाथ शिव का वास माना जाता है। इस कारण बरगद के वृक्ष की विशेष रूप से पूजा होती है।
महाभारत में भी इस वृक्ष के बारे में चर्चा की गई है। महर्षि वाल्मीकि और तुलसीदास के अलावा, कालिदास ने भी अपनी रचना 'मेदिनी कोश' में अक्षय वट के बारे में बताया है। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तांत में प्रयाग के पास एक बहुत प्राचीन, लेकिन पवित्र वट वृक्ष का उल्लेख किया है। कुरुक्षेत्र में वट वृक्ष के नीचे ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था।
आज भी 'वट सावित्री' त्योहार के दिन भारतीय महिलाएं न केवल वट वृक्ष की पूजा करती हैं, बल्कि व्रत भी रखती हैं। अनेक वर्षो तक जीवित रहने वाला यह पेड़ बेहद घना और छायादार होता है और उष्ण जलवायु में पाया जाता है।
प्राचीन साहित्य में इसके कई नाम दिए गए हैं जैसे-न्यग्रोध, बहुपाद, रक्तफल, शुंगी, शिग्र क्षीरी। हिंदी में बरगद, बंगाली में वट वृक्ष, पंजाबी में बूहड़ा, मगधी में बट, गुजराती में बड़बड़ला, सिंधी में नुग, मलयालम में आल-फेरा, फारसी में दरख्ते रीश, अरबी में जालूज्जवानिब, कबीरू, अश्जार और अंग्रेजी में इसे बनयान ट्री कहा जाता है।
आयुर्वेद में वट की कोमल जड़ों का प्रयोग औषधि बनाने में किया जाता है। यह पेड़ आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विशेष महत्वपूर्ण माना जाता है। भारत के अलावा, श्रीलंका, जावा, सुमात्रा, चीन, जापान, नेपाल, मलेशिया आदि में भी वट वृक्ष को काफी महत्व प्रदान किया गया है। हिंदू धर्म में विशेष स्थान देकर इसकी रक्षा की कामना की गई है।
कामिनी कामायनी
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