Tuesday, May 12, 2009

दो महत्वपूर्ण कृतियों में शहीदेआजम और उनका समय

देश की स्वतंत्रता के लिए प्राणों की आहुति देने वाले क्रंातिकारियों में अग्रणी है शहीदेआजम भगतसिंह। एक कृतज्ञ राष्ट्र अपने सपूतों की स्मृति से ज्योतित होता रहता है। भगतसिंह के जीवन और विचारों पर केन्द्रित दो पुस्तकों के महत्व को इस आलेख में रेखांकित किया है केशव तिवारी ने।

इधर सुधीर विद्यार्थी के संपादन में दो किताबें 'शहीद भगत सिंह क्रांति का साक्ष्य' और जब ज्योति जगी (सुखदेव राज के संस्मरण) आई है। सुखदेव राज क्रान्तिकर्म में रत थे और शहीद चंद्रशेखर की शहादत के वक्त उनके साथ रहे। पहली किताब में भगत सिंह जी के साथियों और उनसे जुड़े लोगों के संस्मरण है। इन संस्मरणों से गुजरते हुए शहीदे आजम का जो एक चरित्र उभरता है वो बताता है कि एक क्रांतिकारी अपने लोगों के बीच किस सहजता से उस अतिमानवीयता को जीता है जिसका उद्देश्य ही विश्व को उत्पीड़न मुक्त करना है।

पूरी किताब एक दस्तावेज है कि तेइस साल का एक युवा अपनी जातीयता से प्रभावित होकर विश्व की राजनीति से किस तरह जुड़ा। उसका स्वप्न साम्राज्यवाद के नाश तक ही सीमित नहीं था बल्कि उसका विस्तार एक क्रांतिकारी समाज के निर्माण तक था। शहीद करतार सिंह सराबा से प्रेरणा लेने वाला यह शहीद कितने ही देश के युवाओं को वह सपना दिखा चुका था। उनके फांसी पर चढ़ते वक्त जयदेव कपूर ने पूछा, ''सरदार तुम मरने जा रहे हो मैं जानता हूं तुम्हे इसका अफसोस नहीं है।'' सुनकर ठहाका मारकर हंसे फिर गंभीर होकर बोले, ''क्रांति के मार्ग पर कदम रखते समय मैंने सोचा था कि यदि मैं अपना जीवन देकर देश के कोने-कोने तक इंकलाब का नारा पहुंचा सका तो मैं समझूंगा कि मुझे अपने जीवन का मूल्य मिल गया..।'' फिर रुककर कहा, ''इस छोटी सी जिंदगी का इससे अधिक मूल्य भी क्या हो सकता है।'' आगे शिववर्मा लिखते है कि वह बहुत ही सौंदर्यप्रिय थे। संगीत और कला से उन्हे बहुत प्रेम था। हिंदी, उर्दू, पंजाबी से गहरा लगाव था। कामरेड सोहन सिंह की गुरुमुखी और उर्दू से निकलने वाली पत्रिका 'कीर्ति' में लेख लिखते थे। वास्तव में यह पुस्तक शहीदे आजम पर संस्मरणों का लहराता समुद्र है, जिसमें उन्हे सतह से जानने वालों के लिये एक सम्पूर्ण क्रांतिकारी का चरित्र खुलता है। 'मथुरादास थापर' लिखते है कि काकोरी केस के क्रांतिकारियों को फांसी की सजा सुनकर लौटे तो पूछा, ''मथुरा तू इंस्टीट्यूट से क्यों लौट आया?''-''यह सुनकर सारा देश रो रहा है। मैं कैसे पढ़ता?'' बोले ''तू ये सब छोड़ हम ही काफी है यह गम उठाने के लिये।'' पूरी किताब बार-बार यह सोचने पर मजबूर करती है कि एक युवा सिख किस नजर से देख रहा था अपनी दुनिया के एक मुक्कम्मल क्रांतिवीर और एक मुक्कम्मल स्वप्नदर्शी को। यह ताकत उसने अपनी जनता और दर्शन से हासिल की।

इस पुस्तक की सबसे बड़ी खूबी यह है कि सुधीर विद्यार्थी ने जो चयन किया है उसमें हर लेखक भगत सिंह के चरित्र के एक नये आयाम ही खोलता है। उनका राजनैतिक चिंतन, उनका जीवन, अपनी मिट्टी-बोली-बानी से प्रेम, उनकी कलाप्रियता और अपनी जमीन पर खड़े होकर विश्व को देखना जैसा की बटुकेश्वरदत्त कहते है, ''सन् 1927- 28 में क्रांति के साथ राष्ट्रीय संकट का भी काल था। जहां आर्थिक परिवर्तनों द्वारा शोषण विहीन समाज भगत सिंह का लक्ष्य था। वहीं ट्रेड डिस्प्यूट बिल स्वीकृत करा लिया गया था। लाखों लाखों लोग अपनी आर्थिक दशा सुधारने के प्रयास हड़ताल से भी वंचित कर दिये गये। पब्लिक सेफ्टी बिल, ट्रेड डिस्प्यूट बिल के विरोध के चलते लाला लाजपतराय की हत्या का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा, वो समझते थे कि इन नंगे-भूखों की लड़ाई लड़े बिना इन्हे राष्ट्र की आजादी कभी पूरी नहीं मिलेगी। राजनीति के साथ-साथ आर्थिक लड़ाई भी एक बड़ा मुद्दा था। ''एक संस्मरण विरेन्द्र सिन्धु का है- 'स्वभाव के आइने से'। इससे हमें उनके मूल स्वभाव का पता चलता है कि वे अति संवेदनशील और हंसमुख व्यक्तित्व के स्वामी थे। चीजों को समझने-समझाने की कोशिश करते थे। जिद्दी और कट्टर बिल्कुल नहीं। बहुमत से अपने खिलाफ निर्णय को भी प्रजातांत्रिक ढंग से स्वीकार कर लेते थे। यह दिखाता है कि जीवन के इन मूल्यों को धारण करके ही वो शहीदे आजम हो पाये। अंत में जितेन्द्र सान्याल ने भगत सिंह को फांसी पर कांग्रेसी नेताओं की राय उनकी निरीहता और उनके मुकदमे की कार्यवाही और उनकी दलीलों का जिक्र किया है।

दूसरी किताब 'जब ज्योति जगी' सुधीर विद्यार्थी के संपादन में क्रांतिकारी सुखदेव राज का संस्मरण है। यूं तो यह भी संस्मरण ही है परन्तु यह इस मामले में भिन्न है कि एक व्यक्ति जो आजाद की शहादत के वक्त उनके साथ तथा तमाम क्रांतिकारी गतिविधियों में लिप्त था वह इस समूचे परिदृश्य को कैसे देख रहा था। पूरे संस्मरणों में विभिन्न महत्वपूर्ण घटनाओं को बहुत सा सीधे- सादे ढंग से बिना किसी लागलपेट के दिया गया है। यशपाल पर लेखक की राय एक नई बात खोलती है जो शायद इस पुस्तक के पहले लोगों को मालूम न हो पाती कि कैसे व्यक्तिवाद क्रांतिकारी पार्टियों में पनप जाता है और आजाद को अन्तत: अपने लोगों की ही हुकुमउदूली और रूमानी कमजोरियों से लड़ना पड़ा। सुखदेव राज ने बाद के जीवन का एक हिस्सा छत्तीसगढ़ दुर्ग के अंडा गांव में कुष्ठ रोगियों की सेवा में बिताया, यह बताता है कि क्रांति से विरत होकर भी वह मानवता से कभी विरत नहीं हुए। पुस्तक भगवतीचरण वर्मा और दुर्गा भाभी को लेकर पैदा की गई गलतफहमी पर भी खुलकर चर्चा करती है।

अपने संस्मरण में लेखक ने अपने साथियों की शहादत को बहुत ही शिद्दत से याद किया है। इसमें भगवती भाई और सालिग राम का बलिदान, पृथ्वी सिंह को खोजकर क्रांतिकारियों का मिलना, इस संघर्ष का ही नया मोड़ है। आजाद और पं. जवाहरलाल के बीच एक वार्ता का जिक्र है जिसमें गांधी इरविन समझौते में आजाद वह शर्त शामिल नहीं करवा सके जिसमें क्रांतिकारियों को छोड़ने और उनके विरुद्ध वारंट वापस लेने की बात थी। यह पुस्तक एक पूरे के पूरे परिदृश्य का खाका खींचती है। यह वस्तुत: एक समूचे काल खण्ड का दस्तावेज है जिसमें क्रांति और व्यक्ति के अंतर्सबंधों की गहरी पड़ताल है।

[संदर्भित पुस्तकें: 'शहीद भगत सिंह- क्रांति का साक्ष्य' और 'जब ज्योति जगी'/ सम्पादक-सुधीर विद्यार्थी/ राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली]




कोई बच्चा नहीं है

उसे भूला तो खो जाऊंगा मैं भी

मेरी हिम्मत को ये डर तोड़ता है

सजाये रख इन्हे पलकों पे अपनी

ये मोती काहे रोकर तोड़ता है

बड़ा बे-दर्द है साहिल के दिल को

सुनामी से समन्दर तोड़ता है

वही रिश्ता है जो जोड़े है सबको

अगर बिगड़े वही घर तोड़ता है

बनाये जो महल ख्वाबों में उसने

उन्हीं महलों को दिनभर तोड़ता है

कोई बच्चा नहीं है 'कम्बरी' अब

कि आईने से पत्थर तोड़ता है

[अंसार कम्बरी]

'जफर मंजिल' 11/116, ग्वालटोली, कानपुर- 208001




सात फेरे (पहली किस्त)

पढ़ते-पढ़ते उसे ऊंघ सी आने लगी। ज्योत्सना ने हाथ में पकड़े झुंपा लाहिरी के थिरकते शब्दों को अल्पविराम दिया ताकि कुछ देर सुस्ताने के बाद वे दोबारा उसको जादुई दुनिया की सैर करा सकें। किताबों के अलावा कोई मसरूफियत नहीं थी। वो इस फुर्सत से उकताये जा रही थी। कुछ साल पहले यह हाल था कि शोर-शराबे और दूसरों के आने-जाने से वह हद से ज्यादा चिढ़ जाया करती थी। उसे जिंदगी के बेशकीमती लम्हों के जाया होने का बेहद अफसोस हुआ करता था। पहले फुर्सत का एक पल चुराना मुश्किल होता था और अब जब फुर्सत मिली तो ऐसी कि ये दिन उसे इस कदर बोझिल लगने लगे कि उसे मुसलसल खामोशी, तन्हाई और बेकारी वे वहशत सी होती थी। राहत का नामोनिशंा नहीं था और थकान का एहसास था कि बढ़ता ही जा रहा था। 'सच है कि फुर्सत की भी अपनी एक थकान होती है।'

ज्योत्सना ने सच्चाई से खुद का एतराफ किया। 'टी.वी. खोलो' पड़ोसन मीता की गगनभेदी आवाज ने तमाम फ्लैटों के बंद दरवाजों पर दस्तक दी। न्यूज चैनल पर लोकल ट्रेन में हुए बम-विस्फोट की खबर देखकर मीता बुरी तरह हड़बड़ा गयी थी। सभी न्यूज चैनलों पर विस्फोट का खौफनाक मंजर दिखाया जा रहा था। बिल्डिंग की ज्यादातर औरतों की तरह ज्योत्सना भी अपने पति के घर लौटने का इंतजार कर रही थी। रजत ऑफिस से नहीं आये थे। बोरीवाली में उनका ऑफिस था। ऑफिस से लौटने का रूट और नियत समय भी वही था। 'हे भगवान!' ज्योत्सना चिंता में डूब गयी। '...' जवाब ने खामोशी का लिहाफ ओढ़ लिया।

8 बजे शाम

मीरा रोड से माटुंगा के बीच हुए लगातार धमाकों से चारों तरफ अफरा-तफरी का माहौल था। 'लाइन इज बिजी, प्लीज डायल लेटर' रजत के ऑफिस से लगातार नकारात्मक रिस्पांस मिल रहा था। रजत अपना मोबाइल घर पर भूल गये थे। सुबह-सुबह बाप-बेटे में गर्मागर्म कहासुनी जो हो गयी थी। 'आज सुबह से ही मनहूसियत का आभास हो रहा था। मैं चाहती तो रजत को आफिस जाने से रोक सकती थी।' ज्योत्सना को याद आया कि रात में बिल्ली के रोने की आवाज भी सुनी थी।

(दिन भर रजत के वुजूद को झेलना नाकाबिले बर्दाश्त होता है। जब रजत टूर पर जाते है तब मैं ऊपरी तौर पर गुस्सा जाहिर करती हूं पर रजत की गैरमौजूदगी का पूरा लुत्फ उठाती हूं। आज भी मैं सुकून के चन्द लम्हे खोना नहीं चाहती थी)

'मैं ऐसा क्यों महसूस कर रही हूं? क्या हमारे रिश्ते में प्यार नहीं रहा?' ज्योत्सना को अचानक बहुत शिद्दत से तन्हाई का एहसास हुआ जो गहराते शाम के साये के साथ बढ़ रहा था। (प्यार था ही कब.. हां, अगर जिस्मों की नजदीकियों को प्यार का जामा पहनाना चाहो तो और बात है। यहंा भावात्मक लगाव को लेकर भी संशय है और तुम मोहब्बत के नर्म गुलाबी एहसासात के मुगालतों में हो।) 'पति-पत्नी के रिश्तों में प्यार की गुंजाइश ही कहंा होती है? अगर इंसान एक कुत्ता पालता है तो उसके साथ भी रहने की आदत हो जाती है। साथ रहने की आदत एक-दूसरे के लिए सहूलियत-सहजीविता की थ्योरी-भावात्मक लगाव-इसी को लोग प्यार समझ लेते है।' एक दार्शनिक के विचारों ने हौले से ज्योत्सना की सोच को थपथपाया।

उसे लगा वह इंसान न होकर कुत्ता बन गयी थी। उसका पति और बच्चे भी। चारों कुत्ते एक साथ रहते थे। एक-दूसरे पर भौं-भौं करते हुए झपटते रहते थे। घबराकर उसने न्यूज चैनल बदला। म्यूजिक चैनल पर एक गजल ने समंा बांध रखा था-

'तेरे आने की जब खबर महके

तेरी खुशबू से सारा घर महके।'

'और यहां रजत के जाने के बाद खुशबू क्या, उसका समूचा अस्तित्व ही गायब हो जाता है। मैंने कभी रजत की खुशबू का एहसास नहीं किया।' ज्योत्सना ने मुंदी-मुंदी आंखों से वाल-क्लॉक को देखा।

घड़ी की सुइयों पे जिंदगी, दिन-रात, महीने और साल बीते। किताबों में रखे सुर्ख गुलाबों में वह खुशबू आज तलक जिन्दा है।

'क्या मैं अब तक उसका प्यार पूरी तरह पाने के इंतजार में हूं? अधूरा प्यार आज भी पूरा होने की चाह रखता है।' ज्योत्सना ने अंदर ही अंदर खुद को टटोला। उसे अपने इर्द-गिर्द जुनैद की खुशबू का एहसास गहराता हुआ मालूम हुआ।

(उस उम्र में रूहानी, रूमानी और जिस्मानी ख्यालातों की मिली-जुली तबियत होती है। क्या जुनैद हकीकत में तुमसे प्यार करता था?) 'मालूम नहीं.. पर मैं तो करती थी।' (अगर जुनैद को तुमसे इतनी शदीद-तरीन मोहब्बत थी तो.. कायर कहीं का। सुना है जब तक मोहब्बत के फूल को इजहार का पानी न मिले, वो सूखकर खत्म हो जाता है।)

'ठीक है, ठीक है पर क्या रजत मुझसे प्यार करते है?' मन हमेशा सोचता आया था कि रजत को उससे दिली लगाव था। कमर पर लहराते खूबसूरत शहद रंग बालों, दूध जैसी रंगत और हसीन शरबती आंखों के संग बेबाक अंदाज लिये वह हर महफिल की जान बन जाती थी। रजत के बॉस उस पर इस कदर फिदा थे कि हर हफ्ते किसी न किसी बहाने कोई फैमली डिनर या सरप्राइज पार्टी अरैज कर देते जिसमें उनकी मौजूदगी निहायत अहमियताना होती थी। उसे हमेशा महसूस होता था कि रजत को सिर्फ उसकी खूबसूरती में दिलचस्पी है।

'बिल्डिंग में रहने वाली माला नेगी कितनी बदसूरत है? पर उसका पति उससे कितना प्यार करता है? दैट इज रियल लव' रह-रहकर उसे अपनी सुंदरता पर कोफ्त होने लगी। 'काश मैं बदसूरत होती तो कितना अच्छा होता। तब जाकर मुझे सच्चा प्रेम नसीब होता।' वह गहन हीनभावना से अवसादग्रस्त हो उठी।

[सोनाली सिंह]

जीवनधारा, गायत्रीनगर, राठ-210431,

जिला- हमीरपुर (उ.प्र.)




सर्वोत्तम है भक्ति-मार्ग

विद्वानों का मानना है कि ईश्वर को पाने के तीन मार्ग हैं--ज्ञान, कर्म और भक्ति। दरअसल, यह ज्ञान ही है, जिसके माध्यम से हम यह जान पाते हैं कि ईश्वर कौन हैं? ज्ञान का संग्रह हमारे मस्तिष्क में होता है और इसमें कोई दो राय नहीं कि इसे हम ईश्वर से ही प्राप्त करते हैं। मनुष्य का ब्रेन छोटा होता है, तो फिर ऐसी स्थिति में प्रश्न यह उठता है कि उससे वह ईश्वर को कैसे माप पाता है? वास्तव में, मस्तिष्क में मौजूद ज्ञान से ही यह संभव हो पाता है। ज्ञान से मन की भी तृप्ति होती है। श्रीआनंदमूर्ति के अनुसार, जब तक मनुष्य में ज्ञान का अहसास रहे, तब तक उसे ज्ञानार्जन करते रहना चाहिए। सच तो यह है कि एक सीमा के बाद आपके ज्ञान की भूख स्वयं मिट जाती है, क्योंकि तब तक आपका लक्ष्य ईश्वर को पाना हो जाता है। कुछ विद्वान मानते हैं कि कर्म से ही ईश्वर की प्राप्ति होती है, क्योंकि कर्म किए बिना मनुष्य एक क्षण भी जिंदा नहीं रह सकता है! इसलिए हमें कर्म करते रहना चाहिए। लेकिन ध्यान रहे, कर्म अच्छे होने चाहिए। वैसे, गीता में भी भगवान कृष्ण ने हम मनुष्यों को बिना फल की चिंता किए कर्म करते रहने की सलाह दी है। कहने का मतलब यही है कि धार्मिक और आध्यात्मिक जगत में जितनी कीमत ज्ञान की है, उससे कम कर्म की नहीं है। विद्वान कहते हैं कि यदि निर्मल भाव से ईश्वर की भक्ति की जाए, तो उनका मिलना कठिन नहीं है। सच तो यह है कि भक्ति ही एकमात्र रास्ता है, जिस पर बड़े-बड़े ज्ञानी भी चल चुके हैं। हम सभी यह बात मानते हैं कि संपूर्ण सृष्टि का निर्माण ईश्वर के हाथों ही हुआ है।

इसलिए दुनिया के प्रत्येक जीव परमात्मा की ही संतान हैं। यदि आप परमात्मा को प्रसन्न करना चाहते हैं, तो उनकी संतान, यानी प्रत्येक जीव के प्रति प्रेम-भाव रखें। और इसके लिए आपको न केवल मानव-सेवा और समाज -सेवा करनी चाहिए, बल्कि बेसहारों को सहारा भी देना चाहिए। वैसे, मानव सेवा करते समय आप हमेशा एक बात ध्यान में रखें कि यह सब आप प्रभु को पाने के लिए ही कर रहे हैं। वास्तव में, यही भक्ति है। उसके पीछे और कोई वजह नहीं है। यदि भक्ति भाव जग गया, तो समझिए आपको प्रभु को पाने का मार्ग मिल गया।

आचार्य दिव्यचेतनानन्द




अक्षय वट वृक्ष

वट, यानी बरगद को अक्षय वट भी कहा जाता है, क्योंकि यह पेड़ कभी नष्ट नहीं होता है। एक प्रचलित कथा के अनुसार, सदियों पहले घनघोर बारिश हुई थी, बिजली गिरी, सारे वृक्ष गिर गए, लेकिन वट वृक्ष के एक भी पत्ते को क्षति नहीं पहुंची।

ऐसी मान्यता है कि अक्षय वट की रक्षा तीनों देव करते हैं। इसके मूल में चौमुखी ब्रह्म, मध्य में भगवान विष्णु और अग्रभाग में त्रिलोकी नाथ शिव का वास माना जाता है। इस कारण बरगद के वृक्ष की विशेष रूप से पूजा होती है।

महाभारत में भी इस वृक्ष के बारे में चर्चा की गई है। महर्षि वाल्मीकि और तुलसीदास के अलावा, कालिदास ने भी अपनी रचना 'मेदिनी कोश' में अक्षय वट के बारे में बताया है। प्रसिद्ध चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृत्तांत में प्रयाग के पास एक बहुत प्राचीन, लेकिन पवित्र वट वृक्ष का उल्लेख किया है। कुरुक्षेत्र में वट वृक्ष के नीचे ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था।

आज भी 'वट सावित्री' त्योहार के दिन भारतीय महिलाएं न केवल वट वृक्ष की पूजा करती हैं, बल्कि व्रत भी रखती हैं। अनेक वर्षो तक जीवित रहने वाला यह पेड़ बेहद घना और छायादार होता है और उष्ण जलवायु में पाया जाता है।

प्राचीन साहित्य में इसके कई नाम दिए गए हैं जैसे-न्यग्रोध, बहुपाद, रक्तफल, शुंगी, शिग्र क्षीरी। हिंदी में बरगद, बंगाली में वट वृक्ष, पंजाबी में बूहड़ा, मगधी में बट, गुजराती में बड़बड़ला, सिंधी में नुग, मलयालम में आल-फेरा, फारसी में दरख्ते रीश, अरबी में जालूज्जवानिब, कबीरू, अश्जार और अंग्रेजी में इसे बनयान ट्री कहा जाता है।

आयुर्वेद में वट की कोमल जड़ों का प्रयोग औषधि बनाने में किया जाता है। यह पेड़ आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से विशेष महत्वपूर्ण माना जाता है। भारत के अलावा, श्रीलंका, जावा, सुमात्रा, चीन, जापान, नेपाल, मलेशिया आदि में भी वट वृक्ष को काफी महत्व प्रदान किया गया है। हिंदू धर्म में विशेष स्थान देकर इसकी रक्षा की कामना की गई है।

कामिनी कामायनी




समय बड़ा अनमोल

अगर आपके रुपये चोरी हो गए है, या खर्च हो गए है, तो उन्हें फिर से अर्जित किया जा सकता है। आपका स्वास्थ्य खराब हो गया है, तो योग्य चिकित्सक के उपचार से आप फिर से स्वस्थ हो सकते हैं। लेकिन जो समय बीत गया, उसे दोबारा वापस पाने का कोई उपाय नहीं है। आप देवी-देवताओं से प्रार्थना भी करें, तो भी गुजरे समय को वापस नहीं ला सकते।

क्या हम पशु हैं?

समय नदी की बहती जलधारा के समान है, एक बार बह गया, तो बह गया। जो लोग समय यूं ही बीत जाने की चिंता नहीं करते हैं, वे पशु के समान हैं। सच तो यह है कि पशुओं के पास विवेक, ज्ञान और बुद्धि नहीं है, इसलिए उन्हें समय की चिंता नहीं होती है। यदि कोई व्यक्ति समय के महलव को नहीं समझ पाता है, तो वह पशु के समान है। इसलिए यदि आप पशु नहीं कहलाना चाहते हैं, तो समय की कीमत को समझें।

समय ही ईश्वर है

समय सीमित है। हर वस्तु में हम वृद्धि कर सकते हैं। धन अर्जित कर हम करोड़पति अथवा अरबपति बन सकते हैं। थोड़ा प्रयास करें, तो विद्वान और ज्ञानवान भी बना जा सकता है। यहां तक कि झोपड़ी से महल में भी पहुंचा जा सकता है, लेकिन अपने जीवन के लिए निर्धारित समय में एक पल की भी वृद्धि कर पाना संभव नहीं है। हमें निर्धारित समय में अपना लक्ष्य हासिल करना होता है। यदि हमें लेखक, चित्रकार, इंजीनियर, डॉक्टर आदि बनना है, तो तय समय में हमें लगातार प्रयास करना होगा। तभी हम अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर सकते हैं। समय के महलव के बारे में गीता में भी बताया गया है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, 'मैं ही समय हूं' अहमेवाक्षय: कालो यदि हम समय के महलव को नहीं समझ पाते हैं, तो ईश्वर के महलव को कैसे समझ पाएंगे?

समय का प्रबंधन

ज्यादातर लोग समय यूं ही काटने में विश्वास करते हैं। ऐसे लोग भूल जाते हैं कि वे समय को नहीं काट रहे हैं, बल्कि समय उन्हें काट रहा है। निश्चित ही ऐसे लोगों का जीवन में अपना कोई उद्देश्य नहीं होता है। हमें यह निश्चित कर लेना चाहिए कि हमें कब क्या करना है? कब अपनी उद्देश्य-प्राप्ति के लिए आवश्यक श्रम करना है? इसके अलावा, हमें न केवल आराम का समय, बल्कि मौन रहने और बोलने का समय भी निश्चित कर लेना चाहिए। इसे हम अपने मस्तिष्क को सुव्यवस्थित कर सकते हैं। महान दार्शनिक आइजक पिटमैन ने भी मस्तिष्क को सुव्यवस्थित करने की बात कही है।

'महान' और 'सामान्य' में अंतर

जीवन में जो व्यक्ति सफल हुए हैं, उनकी सफलता का सबसे बड़ा मंत्र है कि उन्होंने तय समय के भीतर अपने सभी काम को निपटाया है। एक चिंतक ने भी कहा है, 'कुछ लोग महान बने और कुछ लोग सामान्य रह गए, उन दोनों में अंतर यही है कि किसने किस रूप में अपने समय का उपयोग किया।' जिन लोगों की ईश्वर में आस्था है, वे सोचते हैं कि ईश्वर ने कुछ कार्याें को पूरा करने के लिए ही उन्हें पृथ्वी पर भेजा है और समय के भीतर ही उन कायरें को पूरा करना उनका धर्म है। बाइबल के अनुसार, 'हमें समय रहते सभी कार्यो को पूरा कर लेना चाहिए।' (जॉन-9/4)

यदि हम अपने समय का प्रबंधन सही तरीके से करना जान लेते हैं, तो हमारे पास इतना समय ही नहीं बचता कि हम उस विषय पर व्यर्थ की चिंता करें। इससे हमारा मन भी सुव्यवस्थित हो जाता है। सुव्यवस्थित मन में नकारात्मक विचार भी पैदा नहीं हो सकते हैं।

यदि हमारा मन चंचल है, तो उसे स्थिर करके तय किए गए लक्ष्य की प्राप्ति में लगाया जा सकता है। मन में लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अच्छे विचार आएं, इसके लिए यह आवश्यक है कि मन-रूपी उद्यान से कुविचारों के झाड़-झंखाड़ को उखाड़ कर उसे निर्मल, उज्जवल और सुंदर बनाया जाए। इस संदर्भ में हम रवीन्द्रनाथ टैगोर की इन पंक्तियों को गुनगुना सकते हैं।

मानस मेरा विकसित करो।

हे मानस के स्वामी।

निर्मल करो उज्ज्वल करो।

सुंदर करो हे।

जागृत करो उद्यत करो।

निर्भय करो हे (गीतांजलि)

भगवतीशरण मिश्र